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आशिक़ों के सैर करने का जहाँ ही और है | शाही शायरी
aashiqon ke sair karne ka jahan hi aur hai

ग़ज़ल

आशिक़ों के सैर करने का जहाँ ही और है

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

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आशिक़ों के सैर करने का जहाँ ही और है
उन के आलम का ज़मीन ओ आसमाँ ही और है

पूछता फिरता है क्या हर एक से उन का सुराग़
ला-मकाँ हैं उन को रहने का मकाँ ही और है

आज़माइश इन की वज़ओं का तुझे है गा ज़रर
ये वो फ़िरक़ा है कि इन का इम्तिहाँ ही और है

क्या ख़रीदेगा ख़राब-आबाद के बाज़ार में
दर्द की हो जिंस जिस में वो दुकाँ ही और है

संग ओ गुल का तौफ़ हो तुझ को मुबारक हाजियो
हज़रत-ए-दिल के हरम का कारवाँ ही और है

बैठने को शाख़-ए-तूबा पर नहीं करतीं निगाह
इस चमन की बुलबुलों का आशियाँ ही और है

उस को क्या निस्बत किसी अफ़साना-ओ-क़िस्से के साथ
इश्क़ के दफ़्तर की 'हातिम' दास्ताँ ही और है