आशिक़ी जाँ-फ़ज़ा भी होती है 
और सब्र-आज़मा भी होती है 
रूह होती है कैफ़-परवर भी 
और दर्द-आश्ना भी होती है 
हुस्न को कर न दे ये शर्मिंदा 
इश्क़ से ये ख़ता भी होती है 
बन गई रस्म बादा-ख़्वारी भी 
ये नमाज़ अब क़ज़ा भी होती है 
जिस को कहते हैं नाला-ए-बरहम 
साज़ में वो सदा भी होती है 
क्या बता दो 'मजाज़' की दुनिया 
कुछ हक़ीक़त-नुमा भी होती है
        ग़ज़ल
आशिक़ी जाँ-फ़ज़ा भी होती है
असरार-उल-हक़ मजाज़

