आरज़ू को दिल ही दिल में घुट के रहना आ गया
और वो ये समझे कि मुझ को रंज सहना आ गया
पोंछता कोई नहीं अब मुझ से मेरा हाल-ए-दिल
शायद अपना हाल-ए-दिल अब मुझ को कहना आ गया
सब की सुनता जा रहा हूँ और कुछ कहता नहीं
वो ज़बाँ हूँ अब जिसे दाँतों में रहना आ गया
ज़िंदगी से क्या लड़ें जब कोई भी अपना नहीं
हो के शल धारे के रुख़ पर हम को बहना आ गया
लाख पर्दे इज़्तिराब-ए-शौक़ पर डाले मगर
फिर वो इक मचला हुआ आँसू बरहना आ गया
तुझ को अपना ही लिया आख़िर निगार-ए-इश्क़ ने
ऐ उरूस-ए-चश्म ले मोती का गहना आ गया
पी के आँसू सी के लब बैठा हूँ यूँ इस बज़्म में
दर-हक़ीक़त जैसे मुझ को रंज सहना आ गया
एक ना-शुकरे चमन को रंग-ओ-बू देता रहा
आ गया हाँ आ गया काँटों में रहना आ गया
लब पे नग़्मा और रुख़ पर इक तबस्सुम की नक़ाब
अपने दिल का दर्द अब 'मुल्ला' को कहना आ गया
ग़ज़ल
आरज़ू को दिल ही दिल में घुट के रहना आ गया
आनंद नारायण मुल्ला