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आरज़ू हसरत-ए-नाकाम से आगे न बढ़ी | शाही शायरी
aarzu hasrat-e-nakaam se aage na baDhi

ग़ज़ल

आरज़ू हसरत-ए-नाकाम से आगे न बढ़ी

फ़िगार उन्नावी

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आरज़ू हसरत-ए-नाकाम से आगे न बढ़ी
फ़िक्र अंदेशा-ए-अंजाम से आगे न बढ़ी

सू-ए-मंज़िल कभी दो गाम से आगे न बढ़ी
ज़िंदगी मौत के इल्ज़ाम से आगे न बढ़ी

ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ के सहर-ओ-शाम से आगे न बढ़ी
आशिक़ी रहगुज़र-ए-आम से आगे न बढ़ी

रह गई रिफ़अत-ए-परवाज़ की हसरत दिल में
पर-फ़िशानी क़फ़स-ओ-दाम से आगे न बढ़ी

मंज़िल-ए-बे-ख़ुदी-ए-शौक़ की अज़्मत मालूम
तिश्ना-कामों की नज़र जाम से आगे न बढ़ी

कितनी शामें गईं और कितने सवेरे आए
निगह-ए-मुंतज़िर इक शाम से आगे न बढ़ी

पाकी-ए-नफ़्स की अज़्मत का तो क्या ज़िक्र 'फ़िगार'
ज़ोहद की बात भी एहराम से आगे न बढ़ी