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आरज़ू है मैं रखूँ तेरे क़दम पर गर जबीं | शाही शायरी
aarzu hai main rakhun tere qadam par gar jabin

ग़ज़ल

आरज़ू है मैं रखूँ तेरे क़दम पर गर जबीं

ताबाँ अब्दुल हई

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आरज़ू है मैं रखूँ तेरे क़दम पर गर जबीं
तू उठावे नाज़ से ज़ालिम लगा ठोकर जबीं

अपने घर में तो बहुत पटका प कुछ हासिल नहीं
अब के जी में है तिरी चौखट पे रोऊँ धर जबीं

जैसी पेशानी तिरी है ऐ मिरे ख़ुर्शीद-रू
चाँद की है रौशनी में उस से कब बेहतर जबीं

शैख़ आ जल्वा ख़ुदा का मय-कदे में है मिरे
क्यूँ रगड़ता है अबस काबे के तू दर पर जबीं

क्या करूँ तेरे क़दम तक तो नहीं है दस्तरस
नक़्श-ए-पा ही पर तिरे मलता हूँ मैं अक्सर जबीं

शैख़ गर शैतान से सूरत नहीं मिलती तिरी
बस बता दाग़ी हुई है किस तरह यकसर जबीं

है किसी की भी तिरी से औंधी पेशानी भला
देख तू ऐ शोख़ अपनी आइना ले कर जबीं

आ के जिन हाथों से मलता था तिरे तलवों के तईं
पीटता हूँ अब उन्हीं हाथों से मैं अक्सर जबीं

बूझ कर नक़्श-ए-क़दम को तेरे मेहराब-ए-दुआ
माँगता हूँ मैं मुराद-ए-दिल को रख इस पर जबीं

चाँद का मुखड़ा है या आईना या मुसहफ़ का लौह
या तिरी है ऐ मिरे रश्क-ए-मह-ओ-अख़्तर जबीं

साफ़ दिल 'ताबाँ' मुकद्दर ही कभू होता नहीं
आईना की हैगी रौशन देख ले यकसर जबीं