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आरिज़-ए-रौशन पे जब ज़ुल्फ़ें परेशाँ हो गईं | शाही शायरी
aariz-e-raushan pe jab zulfen pareshan ho gain

ग़ज़ल

आरिज़-ए-रौशन पे जब ज़ुल्फ़ें परेशाँ हो गईं

इस्माइल मेरठी

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आरिज़-ए-रौशन पे जब ज़ुल्फ़ें परेशाँ हो गईं
कुफ़्र की गुमराहियाँ हम-रंग-ए-ईमाँ हो गईं

ज़ुल्फ़ देखी उस की जिन क़ौमों ने वो काफ़िर बनीं
रुख़ नज़र आया जिन्हें वो सब मुसलमाँ हो गईं

ख़ुद-फ़रोशी हुस्न को जब से हुई मद्द-ए-नज़र
निर्ख़-ए-दिल भी घट गया जानें भी अर्ज़ां हो गईं

जो बनाईं थीं कभी ऐवान-ए-किसरा का जवाब
गर्दिश-ए-अफ़्लाक से गर्द-ए-बयाबाँ हो गईं

ख़ौफ़-ए-नाकामी है जब तक कामयाबी है मुहाल
मुश्किलें जब बंध गईं हिम्मत सब आसाँ हो गईं

हाए किस को रोइए और किस की ख़ातिर पीटिये
कैसी कैसी सूरतें नज़रों से पिन्हाँ हो गईं

क्या उन्हें अंदोह-ए-हंगाम-ए-सहर याद आ गया
शाम ही से बज़्म में शमएँ जो गिर्यां हो गईं

इक फ़रिश्ते भी तो हैं जिन को न मेहनत है न रंज
ख़्वाहिशें दिल की बला-ए-जान-ए-इंसाँ हो गईं

क्या है वो जान-ए-मुजस्सम जिस के शौक़-ए-दीद में
जामा-ए-तन फेंक कर रूहें भी उर्यां हो गईं

थी वो तौफ़ीक़-ए-इलाही मैं ने समझा अपना फ़ेअ'ल
ताअतें भी मेरे हक़ में ऐन इस्याँ हो गईं