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आराम फिर कहाँ है जो हो दिल में जा-ए-हिर्स | शाही शायरी
aaram phir kahan hai jo ho dil mein ja-e-hirs

ग़ज़ल

आराम फिर कहाँ है जो हो दिल में जा-ए-हिर्स

मोहम्मद रफ़ी सौदा

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आराम फिर कहाँ है जो हो दिल में जा-ए-हिर्स
आसूदा ज़ेर-ए-ख़ाक नहीं आश्ना-ए-हिर्स

मुमकिन नहीं है ये कि भरे कासा-ए-तमअ
दिन में करोड़ घर जो फिरा दे गद-ए-हिर्स

इंसाँ न हों ज़लील ज़माने के हाथ से
ज़िल्लत किसी को कोई न देवे सिवा-ए-हिर्स

कर मुँह को टुक ब-सू-ए-क़नाअत ये हर्फ़ मान
रहती है लाख तरह की आफ़त क़िफ़ा-ए-हिर्स

नादाँ तलाश-ए-तुर्रा-ए-ज़र से तो बाज़ आ
जूँ शम्अ ये न हो कि तिरा सर कटाए हिर्स

अपने सिवा किसी को न पाया हरीफ़ हैफ़
की क़त्अ रोज़गार ने हम पर क़बा-ए-हिर्स

'सौदा' बसर हो ख़ूबी से औक़ात हर तरह
पर दरमियाँ न होवे ब-शर्त-ए-कि पा-ए-हिर्स