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आँखों से किसी ख़्वाब को बाहर नहीं देखा | शाही शायरी
aankhon se kisi KHwab ko bahar nahin dekha

ग़ज़ल

आँखों से किसी ख़्वाब को बाहर नहीं देखा

हुमैरा राहत

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आँखों से किसी ख़्वाब को बाहर नहीं देखा
फिर इश्क़ ने ऐसा कोई मंज़र नहीं देखा

ये शहर-ए-सदाक़त है क़दम सोच के रखना
शाने पे किसी के भी यहाँ सर नहीं देखा

हम उम्र बसर करते रहे 'मीर' की मानिंद
खिड़की को कभी खोल के बाहर नहीं देखा

वो इश्क़ को किस तरह समझ पाएगा जिस ने
सहरा से गले मिलते समुंदर नहीं देखा

हम अपनी ग़ज़ल को ही सजाते रहे 'राहत'
आईना कभी हम ने सँवर कर नहीं देखा