आँखों में किसी याद का रस घोल रही हूँ
उलझे हुए पल्लू से गिरह खोल रही हूँ
वो आए ख़रीदे मुझे पिंजरे में बिठा दे
मैं बाग़ में मीना की तरह बोल रही हूँ
हर बार हुआ है मिरे नुक़सान का सौदा
कहने को हमेशा से मैं अनमोल रही हूँ

ग़ज़ल
आँखों में किसी याद का रस घोल रही हूँ
रेहाना क़मर