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आँखें खुलीं कि वा दर-ए-जिंदान हो गया | शाही शायरी
aankhen khulin ki wa dar-e-zindan ho gaya

ग़ज़ल

आँखें खुलीं कि वा दर-ए-जिंदान हो गया

मोहसिन चंगेज़ी

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आँखें खुलीं कि वा दर-ए-जिंदान हो गया
मैं रौशनी को देख के हैरान हो गया

तुझ से मुशाबहत नहीं रखता कोई यहाँ
अब तुझ को भूलना भी तो आसान हो गया

उस ने कहा कि फूल से तितली उड़ाइए
इतनी सी बात पर मैं परेशान हो गया

मैं ख़ुद से मिल गया था तिरी बाज़याफ़्त में
क्या मुझ पे तेरे हिज्र का एहसान हो गया

मेरे तमाम ख़्वाब मिरे दिल में रह गए
मेरी तो सारी उम्र का नुक़सान हो गया