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आँख में कितने तिलिस्मात-ए-जहाँ पाओगे | शाही शायरी
aankh mein kitne tilismat-e-jahan paoge

ग़ज़ल

आँख में कितने तिलिस्मात-ए-जहाँ पाओगे

जावेद शाहीन

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आँख में कितने तिलिस्मात-ए-जहाँ पाओगे
ख़ून रंगीं है तो सौ रंग यहाँ पाओगे

हो फ़राग़त तो ज़रा झाड़ू ख़यालों के शजर
शाख़-सारों पे बहुत बर्ग-ए-ख़िज़ाँ पाओगे

यूँ सँभाले न फिरो दिल में शिकस्ता शीशे
किर्चियाँ बिखरीं तो रग रग में रवाँ पाओगे

मौजा-ए-रेग-ए-दरख़्शाँ के तआ'क़ुब में रहो
इन सराबों हैं में पानी का निशाँ पाओगे

ये ख़राबा ही सही इस से न बाहर निकलो
छोड़ कर दिल को कहीं फिर न अमाँ पाओगे

रिश्ता-ए-तार-ए-नज़र से है उजालों का भरम
आँख झपकी तो कोई और समाँ पाओगे

साँस उलझी हुई आती है तो है किस की ख़ता
आग अंदर है तो अंदर ही धुआँ पाओगे

किस क़दर शोर है लोगों से भरी गलियों में
ग़ौर से देखो बहुत ख़ाली मकाँ पाओगे

दश्त-ए-दिल ही से कोई चश्मा निकालो 'शाहीं'
ख़ुश्क-साली में यहाँ पानी कहाँ पाओगे