EN اردو
आँख ही आँख थी मंज़र भी नहीं था कोई | शाही शायरी
aankh hi aankh thi manzar bhi nahin tha koi

ग़ज़ल

आँख ही आँख थी मंज़र भी नहीं था कोई

सरफ़राज़ ख़ालिद

;

आँख ही आँख थी मंज़र भी नहीं था कोई
तू नहीं तेरे बराबर भी नहीं था कोई

मेरे बाहर तो किसी मौत का सन्नाटा था
ऐसी तन्हाई कि अंदर भी नहीं था कोई

क्या तमाशा है कि फिर जिस्म मिरा भीग गया
रास्ते में तो समुंदर भी नहीं था कोई