अंधे मोड़ को जो भी काटे आहिस्ता गुज़रे
साइकिलें टकरा जाती हैं अक्सर मोटर से
अँधियारे में हँसते रोते काले गीत सुने
जो सूरज के आगे आए वो आख़िर चमके
दिन के वरक़ पर इंसाँ क्या थे आड़े-तिरछे लफ़्ज़
रात हुई तो देख रहा हूँ काग़ज़ पर नुक़्ते
मैं बिखरे लम्हे का मोती सदियों से मरबूत
मेरे जिस्म से हो कर गुज़रे बरसों के धागे
'माजिद' की दो ग़ज़लें भी भारी हैं दो सौ पर
सारी ग़ज़लों को अब कोई छापे ना छापे
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ग़ज़ल
अंधे मोड़ को जो भी काटे आहिस्ता गुज़रे
माजिद-अल-बाक़री