आन पहुँचे हैं ये कहाँ हम लोग
अब ज़मीं हैं न आसमाँ हम लोग
कल यक़ीं बाँटते थे औरों में
अब हैं ख़ुद से भी बद-गुमाँ हम लोग
किन हवाओं की ज़द में आए हैं
हो गए हैं धुआँ धुआँ हम लोग
चुप तो पहले भी झेलते थे मगर
इस क़दर कब थे बे-ज़बाँ हम लोग
कब मयस्सर कोई किनारा हो
कब समेटेंगे बादबाँ हम लोग
बन गए राख अब न-जाने क्यूँ
थे कभी शोला-ए-तपाँ हम लोग
हम को जाना था किस तरफ़ 'रज़्मी'!
और किस सम्त हैं रवाँ हम लोग
ग़ज़ल
आन पहुँचे हैं ये कहाँ हम लोग
ख़ादिम रज़्मी