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आख़िर ये हुस्न छुप न सकेगा नक़ाब में | शाही शायरी
aaKHir ye husn chhup na sakega naqab mein

ग़ज़ल

आख़िर ये हुस्न छुप न सकेगा नक़ाब में

इस्माइल मेरठी

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आख़िर ये हुस्न छुप न सकेगा नक़ाब में
शर्माओगे तुम्हीं न करो ज़िद हिजाब में

पामाल शोख़ियों में करो तुम ज़मीन को
डालूँ फ़लक पे ज़लज़ले में इज़्तिराब में

रौशन है आफ़्ताब की निस्बत चराग़ से
निस्बत वही है आप में और आफ़्ताब में

दिल की गिरह न वा हुई दर्द-ए-शब-ए-विसाल
गुज़री तमाम बस्त-ओ-कुशाद-ए-नक़ाब में

जाँ मैं ने नामा-बर के क़दम पर निसार की
था पेश-ए-पा फ़तादा ये मज़मूँ जवाब में

हँस हँस के बर्क़ को तो ज़रा कीजे बे-क़रार
रो रो के अब्र को मैं डुबोता हूँ आब में

वाइज़ से डर गए कि न शामिल हुए हम आज
तर्तीब-ए-महफ़िल-ए-मय-ओ-चंग-ओ-रबाब में

साक़ी इधर तो देख कि हम दैर-ए-मस्त हैं
कुछ मस्ती-ए-निगह भी मिला दे शराब में

दाख़िल न दुश्मनों में न अहबाब में शुमार
मद्द-ए-फ़ुज़ूल हूँ मैं तुम्हारे हिसाब में

किस किस के जौर उठाएँगे आगे को देखिए
दुश्मन है चर्ख़-ए-पीर ज़मान-ए-शबाब में

पैग़ाम्बर इशारा-ए-अबरू से मर गया
फिर जी उठेगा लब भी हिला दो जवाब में