आज मुझे कुछ लोग मिले हैं पागल से
शहर में वहशी दर आए क्या जंगल से
सारे मसाइल ला-यनहल से लगते हैं
निकलूँ कैसे सोच की गहरी दलदल से
बर्फ़-नुमा सी तारों की चंचल किरनें
छन कर निकलें रात के काले आँचल से
ज़ेहन से यूँ है फ़िक्र-ओ-नज़र का अब रिश्ता
पनघट को इक रब्त हो जैसे छागल से
याद की ख़ुशबू दिल के नगर में फैलेगी
ग़म के साए लगते हैं अब शीतल से
जिस्म-ओ-जाँ पर सन्नाटों का पहरा हो
बाज़ आया मैं अब दुनिया की हलचल से
तन्हाई का ज़हर भला क्या फैलेगा
छाए हो तुम एहसास पे मेरे बादल से
ग़ज़ल
आज मुझे कुछ लोग मिले हैं पागल से
अनवर मीनाई