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आज है दहर में क्या इक नई आफ़त के सिवा | शाही शायरी
aaj hai dahr mein kya ek nai aafat ke siwa

ग़ज़ल

आज है दहर में क्या इक नई आफ़त के सिवा

मसूदा हयात

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आज है दहर में क्या इक नई आफ़त के सिवा
बुग़्ज़-ओ-नफ़रत के सिवा रंज-ओ-मुसीबत के सिवा

इस तरह छाया हुआ है निगह-ओ-दिल पे तिलिस्म
जैसे हर चीज़ हक़ीक़त हो हक़ीक़त के सिवा

अपने हर जब्र को वो मेहर-ओ-वफ़ा कहते हैं
हम भी कुछ नाम न दें उस को मोहब्बत के सिवा

हस्ती-ए-इश्क़ को अब तक न कोई जान सका
वर्ना है दहर में क्या और मोहब्बत के सिवा

हर-नफ़स इक नए तूफ़ान की यूरिश है 'हयात'
किस को इल्ज़ाम दें इस दौर में क़िस्मत के सिवा