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आइने तुझ पे ही सैक़ल नहीं अर्ज़ानी का | शाही शायरी
aaine tujh pe hi saiqal nahin arzani ka

ग़ज़ल

आइने तुझ पे ही सैक़ल नहीं अर्ज़ानी का

ख़ुमार कुरैशी

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आइने तुझ पे ही सैक़ल नहीं अर्ज़ानी का
मरहला सिर्फ़ बचा है मिरी हैरानी का

तुझ से मिल आए बहुत पेच बहुत ताब के बाद
क़र्ज़ उतरा ही नहीं दिल की पशेमानी का

चाहे जिस बाब से तू मुझ को रिहाई दे दे
मुझ पे मुश्किल नहीं रस्ता तिरी आसानी का

बुझ के रहना कभी बे-साख़्ता जलना क्या है
ख़ूब अंदाज़ है जानाँ तिरी मेहमानी का

ये किताबों ये रिसालों का सफ़र कुछ भी नहीं
इस्तिआ'रा ही बहुत है तिरी पेशानी का

लैम्प बुझते ही सिरहाने का परी आती है
रात-भर फिर वही मौसम तिरे ज़िंदानी का