आइने के रू-ब-रू इक आइना रखता हूँ मैं
रात-दिन हैरत में ख़ुद को मुब्तला रखता हूँ मैं
दोस्तों वाली भी इक ख़ूबी है उन में इस लिए
दुश्मनों से भी मुसलसल राब्ता रखता हूँ मैं
रोज़-ओ-शब मैं घूमता हूँ वक़्त की पुर-कार पर
अपने चारों सम्त कोई दायरा रखता हूँ मैं
खटखटाने की भी ज़हमत कोई आख़िर क्यूँ करे
इस लिए भी घर का दरवाज़ा खुला रखता हूँ मैं
आज-कल ख़ुद से भी है रंजिश का कोई सिलसिला
आज-कल ख़ुद से भी थोड़ा फ़ासला रखता हूँ मैं
चंद यादें एक चेहरा एक ख़्वाहिश एक ख़्वाब
अपने दिल में और क्या उन के सिवा रखता हूँ मैं
चंद तस्वीरें किताबें ख़ुशबुएँ और एक फूल
अपनी अलमारी में 'ताबिश' और क्या रखता हूँ मैं

ग़ज़ल
आइने के रू-ब-रू इक आइना रखता हूँ मैं
तौसीफ ताबिश