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आइना-आसा ये ख़्वाब-ए-नीलमीं रक्खूँगा मैं | शाही शायरी
aaina-asa ye KHwab-e-nilamin rakkhunga main

ग़ज़ल

आइना-आसा ये ख़्वाब-ए-नीलमीं रक्खूँगा मैं

ग़ुलाम हुसैन साजिद

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आइना-आसा ये ख़्वाब-ए-नीलमीं रक्खूँगा मैं
और उस उजले सितारे पर यक़ीं रक्खूँगा मैं

उम्र भर ख़ुश आएगी क्या मेरी तन्हाई मुझे
राब्ता हर चंद लोगों से नहीं रक्खूँगा मैं

शहर ही ऐसा अंधेरा है कि इक दिन भूल कर
ताक़चे में फिर चराग़-ए-अव्वलीं रक्खूँगा मैं

रास आती ही नहीं जब प्यार की शिद्दत मुझे
इक कमी अपनी मोहब्बत में कहीं रक्खूँगा मैं

एक साया सा गुज़र जाएगा मौज-ए-नूर से
जब उजाले में वो शाख़-ए-यासमीं रक्खूँगा मैं

हाँ यही मिट्टी विरासत है मिरे अज्दाद की
लौट कर अपनी कमाई भी यहीं रक्खूँगा मैं