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आईन-ए-वफ़ा इतना भी सादा नहीं होता | शाही शायरी
aain-e-wafa itna bhi sada nahin hota

ग़ज़ल

आईन-ए-वफ़ा इतना भी सादा नहीं होता

शबनम शकील

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आईन-ए-वफ़ा इतना भी सादा नहीं होता
हर बार मसर्रत का इआदा नहीं होता

ये कैसी सदाक़त है कि पर्दों में छुपी है
इख़्लास का तो कोई लबादा नहीं होता

जंगल हो कि सहरा कहीं रुकना ही पड़ेगा
अब मुझ से सफ़र और ज़ियादा नहीं होता

इक आँच की पहले भी कसर रहती रही है
क्यूँ सातवाँ दर मुझ पे कुशादा नहीं होता

सच बात मिरे मुँह से निकल जाती है अक्सर
हर-चंद मिरा ऐसा इरादा नहीं होता

ऐ हर्फ़-ए-सना सेहर-ए-मुसल्लम तिरा तुझ से
बढ़ कर तो कोई साग़र-ए-बादा नहीं होता

अफ़्साना-ए-अफ़्सून-ए-जवानी के अलावा
किस बात का दुनिया में इआदा नहीं होता

सूरज की रिफ़ाक़त में चमक उठता है चेहरा
'शबनम' की तरह से कोई सादा नहीं होता