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आग जो बाहर है पहुँचेगी अंदर भी | शाही शायरी
aag jo bahar hai pahunchegi andar bhi

ग़ज़ल

आग जो बाहर है पहुँचेगी अंदर भी

हकीम मंज़ूर

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आग जो बाहर है पहुँचेगी अंदर भी
साए जल जाएँगे और फिर पैकर भी

तेरी आँखों में आँसू भी देखे हैं
तेरे हाथों में देखा है ख़ंजर भी

पारख है तो मुझ को परख हुश्यारी से
मैं इक गौहर भी हूँ मैं इक पत्थर भी

ख़्वाबों में भी रहता हूँ बेचैन बहुत
चैन नहीं मिलता है मुझ को सो कर भी

कब तक जंग लड़ेगा तेरे सूरज से
सूखेगा इक दिन आख़िर ये सागर भी

शफ़क़-ए-शाम का दिन भर था अरमान मुझे
ख़ून-आलूदा निकला है ये मंज़र भी

फूल की पती भी है बार मुझे 'मंज़ूर'
देखोगे तो लगता हूँ इक पत्थर भी