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आदमी चौंक चुका है मगर उट्ठा तो नहीं | शाही शायरी
aadmi chaunk chuka hai magar uTTha to nahin

ग़ज़ल

आदमी चौंक चुका है मगर उट्ठा तो नहीं

मुज़फ़्फ़र वारसी

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आदमी चौंक चुका है मगर उट्ठा तो नहीं
मैं जिसे ढूँढ रहा हूँ ये वो दुनिया तो नहीं

रूह को दर्द मिला दर्द को आँखें न मिलीं
तुझ को महसूस किया है तुझे देखा तो नहीं

रंग सी शक्ल मिली है तुझे ख़ुश्बू सा मिज़ाज
लाला-ओ-गुल कहीं तेरा ही सरापा तो नहीं

चेहरा देखूँ तो ख़द-ओ-ख़ाल बदल जाते ही
छुप के आईने के पीछे कोई बैठा तो नहीं

फेंक कर मार ज़मीं पर न ज़माने मुझ को
टूट ही जाऊँगा जैसे मैं खिलौना तो नहीं

ज़िंदगी तुझ से हर इक साँस पे समझौता करूँ
शौक़ जीने का है मुझ को मगर इतना तो नहीं

मेरी आँखों में तिरे नक़्श-ए-क़दम कैसे हैं
इस सराए में मुसाफ़िर कोई ठहरा तो नहीं

सोचते सोचते दिल डूबने लगता है मिरा
ज़ेहन की तह में 'मुज़फ़्फ़र' कोई दरिया तो नहीं