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आ रही थी बंद कलियों के चटकने की सदा | शाही शायरी
aa rahi thi band kaliyon ke chaTakne ki sada

ग़ज़ल

आ रही थी बंद कलियों के चटकने की सदा

सिद्दीक़ अफ़ग़ानी

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आ रही थी बंद कलियों के चटकने की सदा
मैं सरापा गोश हो कर रात भर सुनता रहा

बह गया ज़ुल्मात के सैलाब में ऐवान-ए-संग
धूप जब निकली तमाज़त से समुंदर जल उठा

जब रग-ओ-पै में सरायत कर रहा था ज़हर-ए-हब्स
रौज़न-ए-दीवार से मुझ पर हँसी ठंडी हवा

सब्ज़ खेतों से कोई सहरा में ले जाए मुझे
मैं हरे सूरज की ताबानी से अंधा हो गया

बन गई ज़ंजीर खुशबू-दार मिट्टी की कशिश
मैं ज़मीं से जब ख़लाओं की तरफ़ जाने लगा