अक़्ल कहती है दोबारा आज़माना जहल है
दिल ये कहता है फ़रेब-ए-दोस्त खाते जाइए
माहिर-उल क़ादरी
लफ़्ज़ ओ मंज़र में मआनी को टटोला न करो
होश वाले हो तो हर बात को समझा न करो
महमूद अयाज़
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वो खड़ा है एक बाब-ए-इल्म की दहलीज़ पर
मैं ये कहता हूँ उसे इस ख़ौफ़ में दाख़िल न हो
मुनीर नियाज़ी
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आदमिय्यत और शय है इल्म है कुछ और शय
कितना तोते को पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
किताबों से निकल कर तितलियाँ ग़ज़लें सुनाती हैं
टिफ़िन रखती है मेरी माँ तो बस्ता मुस्कुराता है
सिराज फ़ैसल ख़ान