हर नई नस्ल को इक ताज़ा मदीने की तलाश
साहिबो अब कोई हिजरत नहीं होगी हम से
इफ़्तिख़ार आरिफ़
मिट्टी की मोहब्बत में हम आशुफ़्ता-सरों ने
वो क़र्ज़ उतारे हैं कि वाजिब भी नहीं थे
इफ़्तिख़ार आरिफ़
शिकम की आग लिए फिर रही है शहर-ब-शहर
सग-ए-ज़माना हैं हम क्या हमारी हिजरत क्या
इफ़्तिख़ार आरिफ़
तमाम ख़ाना-ब-दोशों में मुश्तरक है ये बात
सब अपने अपने घरों को पलट के देखते हैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ुर्बत की ठंडी छाँव में याद आई उस की धूप
क़द्र-ए-वतन हुई हमें तर्क-ए-वतन के बाद
कैफ़ी आज़मी
ये कैसी हिजरतें हैं मौसमों में
परिंदे भी नहीं हैं घोंसलों में
ख़ालिद सिद्दीक़ी
मैं बहुत कमज़ोर था इस मुल्क में हिजरत के बाद
पर मुझे इस मुल्क में कमज़ोर-तर उस ने किया
मुनीर नियाज़ी