हामी भी न थे मुंकिर-ए-'ग़ालिब' भी नहीं थे
हम अहल-ए-तज़बज़ुब किसी जानिब भी नहीं थे
इस बार भी दुनिया ने हदफ़ हम को बनाया
इस बार तो हम शह के मुसाहिब भी नहीं थे
बेच आए सर-ए-क़र्या-ए-ज़र जौहर-ए-पिंदार
जो दाम मिले ऐसे मुनासिब भी नहीं थे
मिट्टी की मोहब्बत में हम आशुफ़्ता-सरों ने
वो क़र्ज़ उतारे हैं कि वाजिब भी नहीं थे
लौ देती हुई रात सुख़न करता हुआ दिन
सब उस के लिए जिस से मुख़ातिब भी नहीं थे
ग़ज़ल
हामी भी न थे मुंकिर-ए-'ग़ालिब' भी नहीं थे
इफ़्तिख़ार आरिफ़