अब के मसरूफ़ियत-ए-इश्क़ बहुत है हम को 
तुम चले जाओ तो फ़ुर्सत से गुज़ारा कर लें
विपुल कुमार
बचा के आँख बिछड़ जाएँ उस से चुपके से 
अभी तो अपनी तरफ़ ध्यान भी ज़ियादा नहीं
विपुल कुमार
बदन में आग है रोग़न मिरे ख़याल में है 
जुदा ही रह अभी ख़तरा बहुत विसाल में है
विपुल कुमार
दिल भी अजीब ख़ाना-ए-वहदत-पसंद था 
इस घर में या तो तू रहा या बे-दिली रही
विपुल कुमार
दिलों पे दर्द का इम्कान भी ज़ियादा नहीं 
वो सब्र है अभी नुक़सान भी ज़ियादा नहीं
विपुल कुमार
हमीं ने हश्र उठा रक्खा है बिछड़ने पर 
वो जान-ए-जाँ तो परेशान भी ज़ियादा नहीं
विपुल कुमार
हर मुलाक़ात पे सीने से लगाने वाले 
कितने प्यारे हैं मुझे छोड़ के जाने वाले
विपुल कुमार
इक दिन तिरी गली में मुझे ले गई हवा 
और फिर तमाम उम्र मुझे ढूँढती रही
विपुल कुमार
इक लम्हा-ए-फ़िराक़ पे वारा गया मुझे 
कैसी हसीन शाम में मारा गया मुझे
विपुल कुमार

