सुपुर्दगी का वो लम्हा कभी नहीं गुज़रा
हज़ार बार मरे हम हज़ार बार जिए
शहज़ाद अहमद
तख़्ता-ए-दार पे चाहे जिसे लटका दीजे
इतने लोगों में गुनाहगार कोई तो होगा
शहज़ाद अहमद
टकराता है सर फोड़ता है सारा ज़माना
दीवार को रस्ते से हटाता नहीं फिर भी
शहज़ाद अहमद
तलाश करनी थी इक रोज़ अपनी ज़ात मुझे
ये भूत भी मिरे सर पर सवार होना था
शहज़ाद अहमद
तमाम उम्र हवा फांकते हुए गुज़री
रहे ज़मीं पे मगर ख़ाक का मज़ा न लिया
शहज़ाद अहमद
तन्हाई में आ जाती हैं हूरें मिरे घर में
चमकाते हैं मस्जिद के दर-ओ-बाम फ़रिश्ते
शहज़ाद अहमद
तेरे सीने में भी इक दाग़ है तन्हाई का
जानता मैं तो कभी दूर न होता तुझ से
शहज़ाद अहमद
तेरी क़ुर्बत में गुज़ारे हुए कुछ लम्हे हैं
दिल को तन्हाई का एहसास दिलाने वाले
शहज़ाद अहमद
ठहर गई है तबीअत इसे रवानी दे
ज़मीन प्यास से मरने लगी है पानी दे
शहज़ाद अहमद