इबलीस भी रख लेते हैं जब नाम फ़रिश्ते
मैं क्यूँ न कहूँ मुझ से भी हैं ख़ाम फ़रिश्ते
वो नूर हैं मैं ख़ाक हूँ लेकिन मिरे बाइस
लेते नहीं इक लम्हा भी आराम फ़रिश्ते
तन्हाई में आ जाती हैं हूरें मिरे घर में
चमकाते हैं मस्जिद के दर-ओ-बाम फ़रिश्ते
इक मैं ही तो हूँ रात-गए जागने वाला
सो जाते हैं बेहोश सर-ए-शाम फ़रिश्ते
जन्नत से निकाला हुआ इंसान वही है
शैतान बने बैठे हैं नाकाम फ़रिश्ते
हूँ इतना गुनाहगार कि अल्लाह के आगे
लेते हुए डरते हैं मिरा नाम फ़रिश्ते
दुनिया हुई आबाद तो मेरे ही सबब से
अंजाम न दे पाए कोई काम फ़रिश्ते
क्या सोच के इंसान से शरमाए हुए हैं
देते नहीं दीदार सर-ए-आम फ़रिश्ते
मैं एक गुनाहगार नसीहत का हदफ़ हूँ
दुनिया में भी मिलते हैं बहर-गाम फ़रिश्ते
ये दुख़्तर-ए-रज़ दाना-ए-गंदुम तो नहीं है
चक्खें तो सही बादा-ए-गुलफ़ाम फ़रिश्ते
यूँ ग़ैब से मैं ढूँड के लाया हूँ मज़ामीं
जैसे कोई ले आए तह-ए-दाम फ़रिश्ते
जो बात मिरे दिल में थी आई है ज़बाँ पर
अब करते फिरेंगे मुझे बदनाम फ़रिश्ते
'शहज़ाद' ज़माना हुआ लेकिन मिरी जानिब
लाते नहीं अल्लाह का पैग़ाम फ़रिश्ते
ग़ज़ल
इबलीस भी रख लेते हैं जब नाम फ़रिश्ते
शहज़ाद अहमद