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शाह नसीर शायरी | शाही शायरी

शाह नसीर शेर

94 शेर

सर-ए-मिज़्गाँ ये नाले अब भी आँसू को तरसते हैं
ये सच है जो गरजते हैं वो बादल कम बरसते हैं

शाह नसीर




सर-बुलंदी को यहाँ दिल ने न चाहा मुनइम
वर्ना ये ख़ेमा-ए-अफ़्लाक पुराना क्या था

शाह नसीर




बुर्क़ा को उलट मुझ से जो करता है वो बातें
अब मैं हमा-तन-गोश बनूँ या हमा-तन-चश्म

शाह नसीर




गले में तू ने वहाँ मोतियों का पहना हार
यहाँ पे अश्क-ए-मुसलसल गले का हार रहा

शाह नसीर




दूद-ए-आह-ए-जिगरी काम न आया यारो
वर्ना रू-ए-शब-ए-हिज्र और भी काला करता

शाह नसीर




दिन रात यहाँ पुतलियों का नाच रहे है
हैरत है कि तू महव-ए-तमाशा नहीं होता

शाह नसीर




दिल-ए-पुर-आबला लाया हूँ दिखाने तुम को
बंद ऐ शीशा-गरो! अपनी दुकाँ कीजिएगा

शाह नसीर




दिला उस की काकुल से रख जम्अ ख़ातिर
परेशाँ से हासिल कब इक दाम होगा

शाह नसीर




देखोगे कि मैं कैसा फिर शोर मचाता हूँ
तुम अब के नमक मेरे ज़ख़्मों पे छिड़क देखो

शाह नसीर