सोहबत-ए-वस्ल है मसदूद हैं दर हाए हिजाब
नहीं मालूम ये किस आह से शरम आती है
शाद लखनवी
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वस्ल में बेकार है मुँह पर नक़ाब
शरम का आँखों पे पर्दा चाहिए
शाद लखनवी
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विसाल-ए-यार से दूना हुआ इश्क़
मरज़ बढ़ता गया जूँ जूँ दवा की
शाद लखनवी
वो नहा कर ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ को जो बिखराने लगे
हुस्न के दरिया में पिन्हाँ साँप लहराने लगे
शाद लखनवी
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