ख़्वाब और तमन्ना का क्या हिसाब रखना है
ख़्वाहिशें हैं सदियों की उम्र तो ज़रा सी है
सरवत ज़ेहरा
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कोई जवाज़ ढूँडते ख़याल ही नहीं रहा
तमाम उम्र यूँही बे-ख़याल जागते रहे
सरवत ज़ेहरा
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मिरे जज़्बों को ये लफ़्ज़ों की बंदिश मार देती है
किसी से क्या कहूँ क्या ज़ात के अंदर बनाती हूँ
सरवत ज़ेहरा
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तुम्हारी आस की चादर से मुँह छुपाए हुए
पुकारती हुई रुस्वाइयों में बैठी हूँ
सरवत ज़ेहरा
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वक़्त भी अब मिरा मरहम नहीं होने पाता
दर्द कैसा है जो मद्धम नहीं होने पाता
सरवत ज़ेहरा
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