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ख़ाली ख़ाली रस्तों पे बे-कराँ उदासी है | शाही शायरी
Khaali Khaali raston pe be-karan udasi hai

ग़ज़ल

ख़ाली ख़ाली रस्तों पे बे-कराँ उदासी है

सरवत ज़ेहरा

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ख़ाली ख़ाली रस्तों पे बे-कराँ उदासी है
जिस्म के तमाशे में रूह प्यासी प्यासी है

ख़्वाब और तमन्ना का क्या हिसाब रखना है
ख़्वाहिशें हैं सदियों की उम्र तो ज़रा सी है

राह-ओ-रस्म रखने के बा'द हम ने जाना है
वो जो आश्नाई थी वो तो ना-शनासी है

हम किसी नए दिन का इंतिज़ार करते हैं
दिन पुराने सूरज का शाम बासी बासी है

देख कर तुम्हें कोई किस तरह सँभल पाए
सब हवास जागे हैं ऐसी बद-हवासी है

ज़ख़्म के छुपाने को हम लिबास लाए थे
शहर भर का कहना है ये तो ख़ूँ-लिबासी है