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क़मर जलालवी शायरी | शाही शायरी

क़मर जलालवी शेर

37 शेर

हर वक़्त महवियत है यही सोचता हूँ मैं
क्यूँ बर्क़ ने जलाया मिरा आशियाँ न पूछ

क़मर जलालवी




आएँ हैं वो मज़ार पे घूँघट उतार के
मुझ से नसीब अच्छे है मेरे मज़ार के

क़मर जलालवी




जल्वा-गर बज़्म-ए-हसीनाँ में हैं वो इस शान से
चाँद जैसे ऐ 'क़मर' तारों भरी महफ़िल में है

क़मर जलालवी




जिगर का दाग़ छुपाओ 'क़मर' ख़ुदा के लिए
सितारे टूटते हैं उन के दीदा-ए-नम से

क़मर जलालवी




कभी कहा न किसी से तिरे फ़साने को
न जाने कैसे ख़बर हो गई ज़माने को

क़मर जलालवी




ख़ून होता है सहर तक मिरे अरमानों का
शाम-ए-वा'दा जो वो पाबंद-ए-हिना होता है

क़मर जलालवी




मैं उन सब में इक इम्तियाज़ी निशाँ हूँ फ़लक पर नुमायाँ हैं जितने सितारे
'क़मर' बज़्म-ए-अंजुम की मुझ को मयस्सर सदारत नहीं है तो फिर और क्या है

क़मर जलालवी




मुद्दतें हुईं अब तो जल के आशियाँ अपना
आज तक ये आलम है रौशनी से डरता हूँ

क़मर जलालवी




मुझे मेरे मिटने का ग़म है तो ये है
तुम्हें बेवफ़ा कह रहा है ज़माना

क़मर जलालवी