लाए उस बुत को इल्तिजा कर के
कुफ़्र टूटा ख़ुदा ख़ुदा कर के
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी
मअ'नी-ए-रौशन जो हों तो सौ से बेहतर एक शेर
मतला-ए-ख़ुर्शीद काफ़ी है पए-दीवान-ए-सुब्ह
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी
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मकान सीने का पाता हूँ दम-ब-दम ख़ाली
नज़र बचा के तू ऐ दिल किधर को जाता है
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी
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समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स
ये चाँद उस के साथ चला जो जिधर गया
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी
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सुब्ह-दम ग़ाएब हुए 'अंजुम' तो साबित हो गया
ख़ंदा-ए-बेहूदा पर तोड़े गए दंदान-ए-सुब्ह
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी
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