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नातिक़ गुलावठी शायरी | शाही शायरी

नातिक़ गुलावठी शेर

109 शेर

रस्म-ए-तलब में क्या है समझ कर उठा क़दम
आ तुझ को हम बताएँ कि क्या माँग क्या न माँग

नातिक़ गुलावठी




रिया-कारी के सज्दे शैख़ ले बैठेंगे मस्जिद को
किसी दिन देखना हो कर रहेगी सर-निगूँ वो भी

नातिक़ गुलावठी




सब को ये शिकायत है कि हँसता नहीं 'नातिक़'
हम को ये तअ'ज्जुब कि वो गिर्यां नहीं होता

नातिक़ गुलावठी




सब कुछ मुझे मुश्किल है न पूछो मिरी मुश्किल
आसान भी हो काम तो आसाँ नहीं होता

नातिक़ गुलावठी




सर से दयार-ए-ग़म के सनीचर उतार दे
मंगल है जिस में जा के वो जंगल उठा तो ला

नातिक़ गुलावठी




शैख़ जज़ा-ए-कार-ए-ख़ैर जो बता रहा है आज
बात तो ख़ूब है मगर आदमी मो'तबर नहीं

नातिक़ गुलावठी




सुब्ह-ए-पीरी में फिरा शाम-ए-जवानी का गया
दिल है वो सुब्ह का भटका जो सर-ए-शाम मिला

नातिक़ गुलावठी




तरीक़-ए-दिलबरी काफ़ी नहीं हर-दिल-अज़ीज़ी को
सलीक़ा बंदा-परवर चाहिए बंदा-नवाज़ी का

नातिक़ गुलावठी




तो हमें कहता है दीवाना को दीवाने सही
पंद-गो आख़िर तुझे अब क्या कहें दीवाना हम

नातिक़ गुलावठी