तेरी औक़ात ही क्या 'मिदहत-उल-अख़्तर' सुन ले
शहर के शहर ज़मीनों के तले दब गए हैं
मिद्हत-उल-अख़्तर
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तुम मिल गए तो कोई गिला अब नहीं रहा
मैं अपनी ज़िंदगी से ख़फ़ा अब नहीं रहा
मिद्हत-उल-अख़्तर
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तू समझता है मुझे हर्फ़-ए-मुकर्रर लेकिन
मैं सहीफ़ा हूँ तिरे दिल पे उतरने वाला
मिद्हत-उल-अख़्तर
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