EN اردو
तिश्नगी अपनी बुझाने के लिए जब गए हैं | शाही शायरी
tishnagi apni bujhane ke liye jab gae hain

ग़ज़ल

तिश्नगी अपनी बुझाने के लिए जब गए हैं

मिद्हत-उल-अख़्तर

;

तिश्नगी अपनी बुझाने के लिए जब गए हैं
दश्त बेचारे समुंदर के तले दब गए हैं

कूच करने की घड़ी है मगर ऐ हम-सफ़रो
हम उधर जा नहीं सकते जिधर सब गए हैं

ग़ैर शाइस्ता-ए-आदाब-ए-मोहब्बत न सही
हम तिरे हिज्र के आज़ार में मर कब गए हैं

अब कोई अक्स है सालिम न किसी का चेहरा
आईना-ख़ाने में क्या देखने साहब गए हैं

कोई रस्ता न मिला घर से निकल कर हम को
हम उसी कू-ए-मलामत को गए जब गए हैं

तेरी औक़ात ही क्या 'मिदहत-उल-अख़्तर' सुन ले
शहर के शहर ज़मीनों के तले दब गए हैं