तिश्नगी अपनी बुझाने के लिए जब गए हैं
दश्त बेचारे समुंदर के तले दब गए हैं
कूच करने की घड़ी है मगर ऐ हम-सफ़रो
हम उधर जा नहीं सकते जिधर सब गए हैं
ग़ैर शाइस्ता-ए-आदाब-ए-मोहब्बत न सही
हम तिरे हिज्र के आज़ार में मर कब गए हैं
अब कोई अक्स है सालिम न किसी का चेहरा
आईना-ख़ाने में क्या देखने साहब गए हैं
कोई रस्ता न मिला घर से निकल कर हम को
हम उसी कू-ए-मलामत को गए जब गए हैं
तेरी औक़ात ही क्या 'मिदहत-उल-अख़्तर' सुन ले
शहर के शहर ज़मीनों के तले दब गए हैं
ग़ज़ल
तिश्नगी अपनी बुझाने के लिए जब गए हैं
मिद्हत-उल-अख़्तर