नई नई आवाज़ें उभरीं 'पाशी' और फिर डूब गईं
शहर-ए-सुख़न में लेकिन इक आवाज़ पुरानी बाक़ी है
कुमार पाशी
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ओढ़ लिया है मैं ने लिबादा शीशे का
अब मुझ को किसी पत्थर से टकराने दो
कुमार पाशी
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तेरी याद का हर मंज़र पस-मंज़र लिखता रहता हूँ
दिल को वरक़ बनाता हूँ और शब भर लिखता रहता हूँ
कुमार पाशी
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