ता-सुब्ह मिरी आह-ए-जहाँ-सोज़ से कल रात
क्या गुम्बद-ए-अफ़्लाक ये हम्माम सा था गर्म
जुरअत क़लंदर बख़्श
तब्अ कह और ग़ज़ल, है ये 'नज़ीरी' का जवाब
रेख़्ता ये जो पढ़ा क़ाबिल-ए-इज़हार न था
जुरअत क़लंदर बख़्श
ठहरी थी ग़िज़ा अपनी जो ग़म इश्क़-ए-बुताँ में
सो आह हमारी हमें ख़ूराक ने खाया
जुरअत क़लंदर बख़्श
थे बयाबान-ए-मोहब्बत में जो गिर्यां आह हम
मंज़िल-ए-मक़्सूद को पहुँचे तरी की राह हम
जुरअत क़लंदर बख़्श
तुझ सा जो कोई तुझ को मिल जाएगा तो बातें
मेरी तरह से तू भी चुपका सुना करेगा
जुरअत क़लंदर बख़्श
उस घर के दर पे जब हुए हम ख़ाक तब खुला
दरवाज़ा आने जाने को और याँ है दूसरा
जुरअत क़लंदर बख़्श
उस शख़्स ने कल हातों ही हातों में फ़लक पर
सौ बार चढ़ाया मुझे सौ बार उतारा
जुरअत क़लंदर बख़्श
उस ज़ुल्फ़ पे फबती शब-ए-दीजूर की सूझी
अंधे को अँधेरे में बड़ी दूर की सूझी
जुरअत क़लंदर बख़्श
वाँ से आया है जवाब-ए-ख़त कोई सुनियो तो ज़रा
मैं नहीं हूँ आप मैं मुझ से न समझा जाएगा
जुरअत क़लंदर बख़्श