चार दिन की बहार है सारी
ये तकब्बुर है यार-ए-जानी हेच
हक़ीर
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बुत-कदे में भी गया का'बे की जानिब भी गया
अब कहाँ ढूँढने तुझ को तिरा शैदा जाता
हक़ीर
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बुत को पूजूँगा सनम-ख़ानों में जा जा के तो मैं
उस के पीछे मिरा ईमान रहे या न रहे
हक़ीर
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बंद-ए-क़बा पे हाथ है शरमाए जाते हैं
कमसिन हैं ज़िक्र-ए-वस्ल से घबराए जाते हैं
हक़ीर
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