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फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी शायरी | शाही शायरी

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी शेर

29 शेर

ख़ाक-ए-'शिबली' से ख़मीर अपना भी उट्ठा है 'फ़ज़ा'
नाम उर्दू का हुआ है इसी घर से ऊँचा

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी




कहाँ वो लोग जो थे हर तरफ़ से नस्तालीक़
पुरानी बात हुई चुस्त बंदिशें लिखना

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी




जला है शहर तो क्या कुछ न कुछ तो है महफ़ूज़
कहीं ग़ुबार कहीं रौशनी सलामत है

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी




हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला
किताब का न कोई दर्स मो'तबर निकला

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी




हम हसीन ग़ज़लों से पेट भर नहीं सकते
दौलत-ए-सुख़न ले कर बे-फ़राग़ हैं यारो

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी




ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना
न आया हम को बरहना गुज़ारिशें लिखना

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी




एक दिन ग़र्क़ न कर दे तुझे ये सैल-ए-वजूद
देख हो जाए न पानी कहीं सर से ऊँचा

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी




देखना हैं खेलने वालों की चाबुक-दस्तियाँ
ताश का पत्ता सही मेरा हुनर तेरा हुनर

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी




ऐ 'फ़ज़ा' इतनी कुशादा कब थी मअ'नी की जिहत
मेरे लफ़्ज़ों से उफ़ुक़ इक दूसरा रौशन हुआ

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी