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बक़ा उल्लाह 'बक़ा' शायरी | शाही शायरी

बक़ा उल्लाह 'बक़ा' शेर

25 शेर

है दिल में घर को शहर से सहरा में ले चलें
उठवा के आँसुओं से दर-ओ-बाम दोश पर

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'




ऐ इश्क़ तू हर-चंद मिरा दुश्मन-ए-जाँ हो
मरने का नहीं नाम का मैं अपने 'बक़ा' हूँ

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'




दिला उठाइए हर तरह उस की चश्म का नाज़
ज़माना ब तू न-साज़द तू बा ज़माना ब-साज़

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'




देखा तो एक शो'ले से ऐ शैख़-ओ-बरहमन
रौशन हैं शम-ए-दैर ओ चराग़-ए-हरम बहम

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'




देख आईना जो कहता है कि अल्लाह-रे मैं
उस का मैं देखने वाला हूँ 'बक़ा' वाह-रे मैं

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'




छोड़ कर कूचा-ए-मय-ख़ाना तरफ़ मस्जिद के
मैं तो दीवाना नहीं हूँ जो चलूँ होश की राह

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'




बुलबुल से कहा गुल ने कर तर्क मुलाक़ातें
ग़ुंचे ने गिरह बाँधीं जो गुल ने कहीं बातें

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'




बस पा-ए-जुनूँ सैर-ए-बयाबाँ तो बहुत की
अब ख़ाना-ए-ज़ंजीर में टुक बैठ के दम ले

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'




बाँग-ए-तकबीर तो ऐसी है 'बक़ा' सीना-ख़राश
उँगलियाँ आप मोअज़्ज़िन ने धरीं कान के बीच

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'