इश्क़ ने मंसब लिखे जिस दिन मिरी तक़दीर में
दाग़ की नक़दी मिली सहरा मिला जागीर में
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
हो सके क्या अपनी वहशत का इलाज
मेरे कूचे में भी सहरा चाहिए
दाग़ देहलवी
बहार आए तो मेरा सलाम कह देना
मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने
कैफ़ी आज़मी
न हम वहशत में अपने घर से निकले
न सहरा अपनी वीरानी से निकला
काशिफ़ हुसैन ग़ाएर
सहरा को बहुत नाज़ है वीरानी पे अपनी
वाक़िफ़ नहीं शायद मिरे उजड़े हुए घर से
ख़ुमार बाराबंकवी
देखना है तुझे सहरा तो परेशाँ क्यूँ है
कुछ दिनों के लिए मुझ से मिरी आँखें ले जा
मुनव्वर राना
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वुसअत-ए-सहरा भी मुँह अपना छुपा कर निकली
सारी दुनिया मिरे कमरे के बराबर निकली
मुनव्वर राना
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