सुब्ह होते ही निकल आते हैं बाज़ार में लोग 
गठरियाँ सर पे उठाए हुए ईमानों की
अहमद नदीम क़ासमी
निज़ाम-ए-ज़र में किसी और काम का क्या हो 
बस आदमी है कमाने का और खाने का
अनवर शऊर
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                                घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे 
बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला
बशीर बद्र
है अजीब शहर की ज़िंदगी न सफ़र रहा न क़याम है 
कहीं कारोबार सी दोपहर कहीं बद-मिज़ाज सी शाम है
बशीर बद्र
गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया 
होते ही सुब्ह आदमी ख़ानों में बट गया
निदा फ़ाज़ली

