गुल तोड़ लिया शाख़ से ये कह के ख़िज़ाँ ने
ये एक तबस्सुम का गुनहगार हुआ है
शारिब लखनवी
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वो मिरे पास से गुज़रे तो ये मालूम हुआ
ज़िंदगी यूँ भी दबे पाँव गुज़र जाती है
शारिब लखनवी
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