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शहनवाज़ ज़ैदी शायरी | शाही शायरी

शहनवाज़ ज़ैदी शेर

7 शेर

चेहरों को पैरों से कुचल कर आगे बढ़ जाना
जीत इसी को कहते हैं तो फिर मैं हार गया

शहनवाज़ ज़ैदी




''जो भी आवे है वो नज़दीक ही बैठे है तिरे''
शीशा-ए-चश्म में किस किस को उतारा हुआ है

शहनवाज़ ज़ैदी




सहर होते ही जैसे रेत भर जाती है साँसों में
नसीम-ए-हिज्र तेरे ज़ाइक़े अच्छे नहीं लगते

शहनवाज़ ज़ैदी




तितलियाँ फूल में क्या ढूँढती रहती हैं सदा
क्या कहीं बाद-ए-सबा रख गई पैग़ाम तिरा

शहनवाज़ ज़ैदी




उस की आँखों में मोहब्बत का गुमाँ तक नहीं आज
कौन सी आग थी कल जिस का धुआँ तक नहीं आज

शहनवाज़ ज़ैदी




वो मिरे कासे में यादें छोड़ कर यूँ चल दिया
जिस तरह अल्फ़ाज़ जाते हों मुआ'नी छोड़ कर

शहनवाज़ ज़ैदी




ये सूखे पत्ते नहीं ज़माने पे तब्सिरे हैं
शजर ने लिख कर बिखेर दी हैं फ़ज़ा में बातें

शहनवाज़ ज़ैदी