क्या ज़िक्र कि इस ज़ीस्त में कुछ खोया कि पाया
अब कुछ भी तो रक्खा नहीं इस सूद ओ ज़ियाँ में
सबा नुसरत
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तुझ से दूरी और क़यामत लगती है
आपस में दो वक़्त जो मिलने लगते हैं
सबा नुसरत
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