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क्यूँ ढूँढती रहती हूँ उसे सारे जहाँ में | शाही शायरी
kyun DhunDhti rahti hun use sare jahan mein

ग़ज़ल

क्यूँ ढूँढती रहती हूँ उसे सारे जहाँ में

सबा नुसरत

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क्यूँ ढूँढती रहती हूँ उसे सारे जहाँ में
वो शख़्स कि रहता है मिरे दिल के मकाँ में

मैं वो नहीं कहते हैं जो कुछ और करें और
जो कुछ है मिरे दिल में वही मेरे बयाँ में

या-रब तिरी रहमत जो कभी जोश में आए
मैं सोच भी पाऊँ न कभी वहम-ओ-गुमाँ में

क्या ज़िक्र कि इस ज़ीस्त में कुछ खोया कि पाया
अब कुछ भी तो रक्खा नहीं इस सूद ओ ज़ियाँ में

मसरूफ़ हूँ इतनी कि तवज्जोह नहीं देती
देता है सदा कोई मुझे क़र्या-ए-जाँ में

वो संग कभी मोम की सूरत बने 'नुसरत'
अब इतना असर लाऊँ कहाँ अपनी ज़बाँ में